राब्ता

राब्ता है कुछ तो

वरना क्यों खाली पन्नो पर

शब्द उकेरा करती है

मेरी कलम
देख लेती है चेहरा तेरा

इस कोरे कागज मे
फिर ज़ज़्बात निकलते है

गिरते सम्भलते 

स्याही संग उतर आते है
ढल जाते है किसी कविता मे

या बन जाते है कोई कहानी
जब तुम इन्हे पढ़ती हो

यही शब्द आंसू बन जाते है
तुम कहती हो, राब्ता नही है!
फिर क्यों ये आंसू रास्ता ढूंढ लेते है

इन आँखों से मेरे दिल तक का..

अजब इश्क़

बिखरे से दिल है जहाँ

टूटे फिर भी नही
नींदों सा ये जहान 

फिर सपने ही सही
मन चला उस और

चैन नही जिस ठोर
आँखे खुली की खुली

रात से दिन हो गयी
ना जाने किस कश्ती

मे बैठ चल पड़ा है

मेरा बिखरा दिल
दरिया है, समंदर नही
मैला ये पानी है तो क्या

मैला ये इश्क़ भी है

©रोहित खत्री